विविध >> विजयी भव विजयी भवए. पी. जे. अब्दुल कलाम, अरुण तिवारी
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यह कृति डॉ. कलाम की पूर्व प्रकाशित पुस्तकों की श्रृंखला की महत्त्वपूर्ण कड़ी है, जो हमें सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन में अपनी प्रवीणताओं और कुशलताओं के साथ विजयी होने की प्रेरणा देती है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हम भारतीयों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सभी जरूरी संसाधन पर्याप्त
मात्रा में देश में उपलब्ध हैं। हमारे यहाँ बहुत सी नीतियाँ और संस्थाएँ
हैं। चुनौती है तो बस शिक्षकों, विद्यार्थियों और तकनीक-विज्ञान को एक
सूत्र में पिरोकर एक दिशा में चिंतन करने की।
डॉ. कलाम देश के छात्र व युवा-शक्ति को भावानात्मक, नैतिक एवं बौद्धिक विकास की ओर प्रवृत्त होने का संदेश देते हैं। वैज्ञानिक और तकनीक खोजों को सही ढंग से मनुष्य के विकास में उपयोग करने के विचार को बल देते हैं।
‘विजयी भव’ डॉ. कलाम के भारत को महाशक्ति बनाने के स्वप्न को दिशा देनेवाली कृति है। इसमें शिक्षा व शिक्षण की पृष्ठभूमि, मानव जीवन-चक्र, परिवारों के सदस्यों के बीच पारस्परिक संबंध, कार्य की उपयोगिता, नेतृत्व के गुण, विज्ञान की प्रकृति, अध्यात्म तथा नैतिकता पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है।
डॉ. कलाम देश के छात्र व युवा-शक्ति को भावानात्मक, नैतिक एवं बौद्धिक विकास की ओर प्रवृत्त होने का संदेश देते हैं। वैज्ञानिक और तकनीक खोजों को सही ढंग से मनुष्य के विकास में उपयोग करने के विचार को बल देते हैं।
‘विजयी भव’ डॉ. कलाम के भारत को महाशक्ति बनाने के स्वप्न को दिशा देनेवाली कृति है। इसमें शिक्षा व शिक्षण की पृष्ठभूमि, मानव जीवन-चक्र, परिवारों के सदस्यों के बीच पारस्परिक संबंध, कार्य की उपयोगिता, नेतृत्व के गुण, विज्ञान की प्रकृति, अध्यात्म तथा नैतिकता पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है।
ज्ञान का दीप जलाए रखूँगा
हे भारतीय युवक
ज्ञानी-विज्ञानी
मानवता के प्रेमी
संकीर्ण तुच्छ लक्ष्य
की लालसा पाप है।
मेरे सपने बड़े
मैं मेहनत करूँगा
मेरा देश महान् हो
धनवान् हो, गुणवान् हो
यह प्रेरणा का भाव अमूल्य है,
कहीं भी धरती पर,
उससे ऊपर या नीचे
दीप जलाए रखूँगा
जिससे मेरा देश महान हो।
ज्ञानी-विज्ञानी
मानवता के प्रेमी
संकीर्ण तुच्छ लक्ष्य
की लालसा पाप है।
मेरे सपने बड़े
मैं मेहनत करूँगा
मेरा देश महान् हो
धनवान् हो, गुणवान् हो
यह प्रेरणा का भाव अमूल्य है,
कहीं भी धरती पर,
उससे ऊपर या नीचे
दीप जलाए रखूँगा
जिससे मेरा देश महान हो।
-ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
खिल के कुछ तो बहारें जाँफिजा दिखला गए,
हसरत उन गुच्छों पर है, जो बिना खिले मुरझा गए।।
हसरत उन गुच्छों पर है, जो बिना खिले मुरझा गए।।
-बृज नारायण चकबस्त
भूमिका
भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जी. अब्दुल कलाम द्वारा रचित-
‘विजयी-भव’- के लिए प्राक्कथन लिखना ऐसा सौभाग्य है,
जो केवल
मुझे ही प्राप्त हुआ है। यह बहुत दुर्लभ अवसर है कि एक विद्वान,
वैज्ञानिक, भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का नेतृत्व करनेवाले और विश्व के
सबसे बड़े लोकतंत्र के लोकप्रिय पूर्व राष्ट्रपति के विचारों पर कोई अपने
विचार प्रस्तुत करे। काफी हद तक यह चुनौती भी है। जितने गहन विचार इस
पुस्तक में दिए गए हैं, उनके आगे मेरे शब्द बहुत हल्के और सामान्य ही
दिखेंगे।
‘अनाज और मिट्टी का मिलन’, ‘स्वर्ग की शान्ति की ऊँचाई’, ‘ब्राउनियन गति और देश’ जैसे अध्याय यह बताते हैं कि उन्होंने कितने भिन्न-भिन्न प्रकार के विषयों पर प्रकाश डाला है। शिक्षा व शिक्षण की पृष्ठभूमि पर मानव जीवन-चक्र, परिवार के लोगों के बीच संबंध, कार्य की उपयोगिता, नेतृत्व के गुण, विज्ञान की प्रकृति, अध्यात्म तथा नैतिकता पर बात की गई है। इन विषयों पर विचार करते हुए वे न सिर्फ भारत के आधुनिक व पारंपरिक ज्ञान, बल्कि विश्व के अनेक लेखकों व विचारकों के बारे में अपनी रुचि का सुपरिचय देते हैं।
डॉ. कलाम ने अपने भावनात्मक, नैतिक एवं बौद्धिक विकास के बारे में इस प्रकार बताया है कि यह पुस्तक निश्चित ही पाठकों को उन लोगों और संस्थानों की याद दिलाएगी, जिन्होंने स्वयं पाठक के सफल होने में मदद की। इस पुस्तक ने मुझे भी अपनी मां के कविता सुनने और अपने दादा की लिखी हुई पुस्तक की याद दिला दी। मेरे दादा साधारण पृष्ठभूमि के एक ऐसे इनसान थे, जिन्होंने अपनी पढ़ाई स्वयं की। उन्होंने राजस्व विभाग में नौकरी करने के साथ-साथ स्कॉटलैंड के निबंधकार थॉमस कार्लाइल (1795-1881) के बारे में पुस्तक भी लिखी। उन्होंने ही मुझसे गणित विषय के प्रति रुचि व अनुराग की नींव रखी।
पुस्तक के दूसरे अध्याय ने मुझे एडवर्ड VI (1537-1553) द्वारा लंदन शहर के लिए बनवाए गए अनाथालय एवं क्राइस्ट अस्पताल की याद दिला दी, जो अभी भी शानदार तरीके से गरीब बच्चों की शिक्षा के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे हैं। इस विद्यालय में अनुशासन और आजादी के बीच बहुत सुंदर संतुलन बनाया गया है।
अपनी पढ़ाई के बाद के वर्षों में जब मैं विज्ञान व गणित में विशेष औपचारिक अध्ययन कर रहा था तब मैं विदेशी भाषाओं के साथ-साथ कला की समझ भी बना पाया। और भिन्न-भिन्न विषय पढ़ने लगा।
उच्च माध्यमिक स्तर पर ऐसी समृद्ध और संवेदी शिक्षा पाने के बाद शुरू में तो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय कुछ अच्छा नहीं लगा, पर इसने भी मुझे बहुत कुछ दिया, जो हमेशा मेरे साथ रहेगा। वहाँ हर सप्ताह एक निबंध लिखना भी सीखने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम था; यह एक ऐसा अभ्यास जो मुझे जीवन भर लिखने की प्रेरणा देता रहा। यह भी एक विरोधाभास ही है कि विश्वविद्यालय ने, जो कि महाविद्यालयी परंपरा के लिए विख्यात है, दूरस्थ शिक्षा से मेरे प्रेम के लिए धरातल उपलब्ध कराया। ऑक्सफोर्ड वास्तव में सीखने की जगह है, पढ़ाने की नहीं। शिक्षक कक्षाओं में पढ़ाते जरूर हैं, पर यह वहाँ बौद्धिक वातावरण का एक छोटा सा अंश मात्र है। पुस्तकालय, निबंध-लेखन और कक्षाएँ ही ज्ञानार्जन के मुख्य तरीके हैं। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अध्ययन वास्तव में दूरस्थ शिक्षा द्वारा ही है।
यह पुस्तक सोचने-विचारने के लिए बहुत सारे आयामों को खोलती है, अनेक व्यावहारिक चुनौतियाँ प्रस्तुत करती है और कई महत्त्वपूर्ण सवाल पाठकों के सामने रखती है कि हर पाठक अपनी एक अलग बौद्धिक-यात्रा पर चल पड़ता है। पश्चिमी वातावरण में पढ़ाई-लिखाई करने के कारण इस पुस्तक को पढ़ना मेरे लिए एक चुनौती के साथ-साथ रोमांचकारी भी रहा। यह विश्लेषण से निष्कर्ष तथा व्यक्ति से समूह के बीच बहुत तेजी से पक्ष बदलती है। इससे शिक्षा के मार्गदर्शन के लिए ब्रह्मांड को ही चुन लिया गया है।
वैज्ञानिक और तकनीक खोजों को सही ढंग से मनुष्य के विकास में प्रयोग करने का विचार इस पुस्तक में आरम्भ से लेकर अन्त तक दिखाई देता है। लेखक का यह मानना है कि विज्ञान और तकनीक के लिए ऐसा अवसर पहले कभी नहीं आया, क्योंकि इस शताब्दी के मध्य तक विश्व की आबादी वर्तमान की तुलना में दो गुनी हो जाने की संभावना है। वे यह कहना चाहते हैं कि नई खोजों से इन लोगों के लिए भोजन, घर, कपड़े, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अच्छा जीवन-स्तर प्राप्त किया जा सकता है। वे लिखते हैं-
‘‘मेरा ऐसा सपना है कि सन् 2020 के स्कूल इमारतें न होकर एक ऐसे केन्द्र होंगे, जिनमें विश्व भर का ज्ञान शिक्षक, विद्यार्थियों और समाज को आपस में बाँधेगा और सभी के लिए उपलब्ध होगा। किसी भी प्रकार की सीमाएँ इसमें बाधा नहीं बनेंगी। शिक्षक ज्ञान देने के बजाय विद्यार्थियों द्वारा स्वयं सीखने में मदद किया करेंगे। शिक्षक सूचना को ज्ञान में परवर्तित करने में और ज्ञान की समझ में परिवर्तित करने में विद्यार्थियों की मदद किया करेंगे.....। सन् 2020 में भारत को ज्ञान पर आधारित पीढ़ी चाहिए, न कि सूचना पर। और उस समय तक हर उम्र के लोग पढ़ा करेंगे, जिससे वे एक नए विश्व का सामना कर सकें।’’
वर्तमान में भारत की जो स्थिति है, उससे डॉ. कलाम के स्वप्न को कैसे साकार किया जा सकता है ? यूनेस्को व कॉमनवेल्थ ऑफ लर्निंग में अपने कार्यकाल के दौरान भारतीय शिक्षा के बारे में जानकर मैं प्रसन्न हुआ। मैंने पाया कि भारत के लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सभी जरूरी संसाधन इस देश में मौजूद हैं। वास्तव में लेखक भारतीयों को अपनी सफलताओं पर अधिक आत्मविश्वास रखने की वकालत कर रहे हैं। इस देश में बहुत सी नीतियाँ और संस्थाएँ हैं। चुनौती है तो यह है कि इन सबको ऐसी प्रक्रिया में शामिल करे कि जिसमें शिक्षक, विद्यार्थी तथा तकनीक को ऐसे मंच पर लाएँ, जो शिक्षा के लेने-देने के ऐसे आदर्श हों जैसे कि इस महत्त्वाकांक्षी पुस्तक में सुझाए गए हैं।
मैं एड्यूसेट उपग्रह प्रणाली के बारे में भी बात करना चाहूँगा, जिसके संस्थापकों में डॉ. कलाम भी थे। साथ ही, मैं उन व्यवस्थाओं को भी महत्त्वपूर्ण मानता हूँ, जो भारत अपने विद्यालय व विश्वविद्यालय स्तर पर दूरस्थ शिक्षा के लिए कर रहा है। इस पुस्तक में वर्णित सीखने के समृद्ध वातावरण के सामने दूरस्थ शिक्षा का एक अव्यावहारिक और उपहासपूर्ण बात लगती है। लेकिन इस अव्यावहारिकता के पीछे है एक क्रांतिकारी वास्तविकता, जो उन कई सुधारों के लिए एक वाहक का कार्य कर सकती है, जो इस स्वप्न को पूरा करने के लिए चाहिए।
भारत ने खुले विश्वविद्यालय और स्कूल के रूप में संस्थाएँ, तकनीक और नीतियों का ढाँचा बना रखा है, जो उस परिवर्तन के लिए जरूरी है, जिसे डॉ. कलाम लाना चाहते हैं। अब यह दूरदर्शी और प्रेरणादायी लोगों पर निर्भर करता है कि वे इन सभी को सही प्रकार से उपयोग में लाएँ। यह पुस्तक उन सभी के स्वप्नों और प्रेरणाओं को पोषित करेगी।
‘अनाज और मिट्टी का मिलन’, ‘स्वर्ग की शान्ति की ऊँचाई’, ‘ब्राउनियन गति और देश’ जैसे अध्याय यह बताते हैं कि उन्होंने कितने भिन्न-भिन्न प्रकार के विषयों पर प्रकाश डाला है। शिक्षा व शिक्षण की पृष्ठभूमि पर मानव जीवन-चक्र, परिवार के लोगों के बीच संबंध, कार्य की उपयोगिता, नेतृत्व के गुण, विज्ञान की प्रकृति, अध्यात्म तथा नैतिकता पर बात की गई है। इन विषयों पर विचार करते हुए वे न सिर्फ भारत के आधुनिक व पारंपरिक ज्ञान, बल्कि विश्व के अनेक लेखकों व विचारकों के बारे में अपनी रुचि का सुपरिचय देते हैं।
डॉ. कलाम ने अपने भावनात्मक, नैतिक एवं बौद्धिक विकास के बारे में इस प्रकार बताया है कि यह पुस्तक निश्चित ही पाठकों को उन लोगों और संस्थानों की याद दिलाएगी, जिन्होंने स्वयं पाठक के सफल होने में मदद की। इस पुस्तक ने मुझे भी अपनी मां के कविता सुनने और अपने दादा की लिखी हुई पुस्तक की याद दिला दी। मेरे दादा साधारण पृष्ठभूमि के एक ऐसे इनसान थे, जिन्होंने अपनी पढ़ाई स्वयं की। उन्होंने राजस्व विभाग में नौकरी करने के साथ-साथ स्कॉटलैंड के निबंधकार थॉमस कार्लाइल (1795-1881) के बारे में पुस्तक भी लिखी। उन्होंने ही मुझसे गणित विषय के प्रति रुचि व अनुराग की नींव रखी।
पुस्तक के दूसरे अध्याय ने मुझे एडवर्ड VI (1537-1553) द्वारा लंदन शहर के लिए बनवाए गए अनाथालय एवं क्राइस्ट अस्पताल की याद दिला दी, जो अभी भी शानदार तरीके से गरीब बच्चों की शिक्षा के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे हैं। इस विद्यालय में अनुशासन और आजादी के बीच बहुत सुंदर संतुलन बनाया गया है।
अपनी पढ़ाई के बाद के वर्षों में जब मैं विज्ञान व गणित में विशेष औपचारिक अध्ययन कर रहा था तब मैं विदेशी भाषाओं के साथ-साथ कला की समझ भी बना पाया। और भिन्न-भिन्न विषय पढ़ने लगा।
उच्च माध्यमिक स्तर पर ऐसी समृद्ध और संवेदी शिक्षा पाने के बाद शुरू में तो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय कुछ अच्छा नहीं लगा, पर इसने भी मुझे बहुत कुछ दिया, जो हमेशा मेरे साथ रहेगा। वहाँ हर सप्ताह एक निबंध लिखना भी सीखने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम था; यह एक ऐसा अभ्यास जो मुझे जीवन भर लिखने की प्रेरणा देता रहा। यह भी एक विरोधाभास ही है कि विश्वविद्यालय ने, जो कि महाविद्यालयी परंपरा के लिए विख्यात है, दूरस्थ शिक्षा से मेरे प्रेम के लिए धरातल उपलब्ध कराया। ऑक्सफोर्ड वास्तव में सीखने की जगह है, पढ़ाने की नहीं। शिक्षक कक्षाओं में पढ़ाते जरूर हैं, पर यह वहाँ बौद्धिक वातावरण का एक छोटा सा अंश मात्र है। पुस्तकालय, निबंध-लेखन और कक्षाएँ ही ज्ञानार्जन के मुख्य तरीके हैं। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अध्ययन वास्तव में दूरस्थ शिक्षा द्वारा ही है।
यह पुस्तक सोचने-विचारने के लिए बहुत सारे आयामों को खोलती है, अनेक व्यावहारिक चुनौतियाँ प्रस्तुत करती है और कई महत्त्वपूर्ण सवाल पाठकों के सामने रखती है कि हर पाठक अपनी एक अलग बौद्धिक-यात्रा पर चल पड़ता है। पश्चिमी वातावरण में पढ़ाई-लिखाई करने के कारण इस पुस्तक को पढ़ना मेरे लिए एक चुनौती के साथ-साथ रोमांचकारी भी रहा। यह विश्लेषण से निष्कर्ष तथा व्यक्ति से समूह के बीच बहुत तेजी से पक्ष बदलती है। इससे शिक्षा के मार्गदर्शन के लिए ब्रह्मांड को ही चुन लिया गया है।
वैज्ञानिक और तकनीक खोजों को सही ढंग से मनुष्य के विकास में प्रयोग करने का विचार इस पुस्तक में आरम्भ से लेकर अन्त तक दिखाई देता है। लेखक का यह मानना है कि विज्ञान और तकनीक के लिए ऐसा अवसर पहले कभी नहीं आया, क्योंकि इस शताब्दी के मध्य तक विश्व की आबादी वर्तमान की तुलना में दो गुनी हो जाने की संभावना है। वे यह कहना चाहते हैं कि नई खोजों से इन लोगों के लिए भोजन, घर, कपड़े, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अच्छा जीवन-स्तर प्राप्त किया जा सकता है। वे लिखते हैं-
‘‘मेरा ऐसा सपना है कि सन् 2020 के स्कूल इमारतें न होकर एक ऐसे केन्द्र होंगे, जिनमें विश्व भर का ज्ञान शिक्षक, विद्यार्थियों और समाज को आपस में बाँधेगा और सभी के लिए उपलब्ध होगा। किसी भी प्रकार की सीमाएँ इसमें बाधा नहीं बनेंगी। शिक्षक ज्ञान देने के बजाय विद्यार्थियों द्वारा स्वयं सीखने में मदद किया करेंगे। शिक्षक सूचना को ज्ञान में परवर्तित करने में और ज्ञान की समझ में परिवर्तित करने में विद्यार्थियों की मदद किया करेंगे.....। सन् 2020 में भारत को ज्ञान पर आधारित पीढ़ी चाहिए, न कि सूचना पर। और उस समय तक हर उम्र के लोग पढ़ा करेंगे, जिससे वे एक नए विश्व का सामना कर सकें।’’
वर्तमान में भारत की जो स्थिति है, उससे डॉ. कलाम के स्वप्न को कैसे साकार किया जा सकता है ? यूनेस्को व कॉमनवेल्थ ऑफ लर्निंग में अपने कार्यकाल के दौरान भारतीय शिक्षा के बारे में जानकर मैं प्रसन्न हुआ। मैंने पाया कि भारत के लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सभी जरूरी संसाधन इस देश में मौजूद हैं। वास्तव में लेखक भारतीयों को अपनी सफलताओं पर अधिक आत्मविश्वास रखने की वकालत कर रहे हैं। इस देश में बहुत सी नीतियाँ और संस्थाएँ हैं। चुनौती है तो यह है कि इन सबको ऐसी प्रक्रिया में शामिल करे कि जिसमें शिक्षक, विद्यार्थी तथा तकनीक को ऐसे मंच पर लाएँ, जो शिक्षा के लेने-देने के ऐसे आदर्श हों जैसे कि इस महत्त्वाकांक्षी पुस्तक में सुझाए गए हैं।
मैं एड्यूसेट उपग्रह प्रणाली के बारे में भी बात करना चाहूँगा, जिसके संस्थापकों में डॉ. कलाम भी थे। साथ ही, मैं उन व्यवस्थाओं को भी महत्त्वपूर्ण मानता हूँ, जो भारत अपने विद्यालय व विश्वविद्यालय स्तर पर दूरस्थ शिक्षा के लिए कर रहा है। इस पुस्तक में वर्णित सीखने के समृद्ध वातावरण के सामने दूरस्थ शिक्षा का एक अव्यावहारिक और उपहासपूर्ण बात लगती है। लेकिन इस अव्यावहारिकता के पीछे है एक क्रांतिकारी वास्तविकता, जो उन कई सुधारों के लिए एक वाहक का कार्य कर सकती है, जो इस स्वप्न को पूरा करने के लिए चाहिए।
भारत ने खुले विश्वविद्यालय और स्कूल के रूप में संस्थाएँ, तकनीक और नीतियों का ढाँचा बना रखा है, जो उस परिवर्तन के लिए जरूरी है, जिसे डॉ. कलाम लाना चाहते हैं। अब यह दूरदर्शी और प्रेरणादायी लोगों पर निर्भर करता है कि वे इन सभी को सही प्रकार से उपयोग में लाएँ। यह पुस्तक उन सभी के स्वप्नों और प्रेरणाओं को पोषित करेगी।
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